21+ Spacial Bhagwan ki Kahani (Shankar, Krishna) | भगवान की कहानियाँ
सच्ची घटनाओं से प्रेरित Bhagwan ki Kahani. जिन्हें पढ़कर आपको विश्व विधाता की भक्ति में शक्ति जानने को मिलेगी। तो चलिए शुरू करते हैं भगवान की कहानियाँ।
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Bhagwan ki Kahani
” मां गंगा और भगवान शिव “
बहुत समय पहले, सूर्यवंशी राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ नाम के एक प्रतापी राजा पृथ्वी पर शासन कर रहे थे। उनके पूर्वजों को कपिल मुनि के श्राप ने भस्म कर दिया था।
केवल मां गंगा ही उनका उद्धार कर सकती थीं।
अतः अपने पूर्वजो को श्राप से मुक्त करने के लिए भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण कर लिया। गंगा तो स्वर्ग में बहती थी, उसको पृथ्वी पर लाना असम्भव था।
मां गंगा को धरती पर लाने के लिए भगीरथ ने, अन्न जल त्याग कर तप करना प्रारंभ कर दिया। बहुत समय पश्चात गंगा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हुईं और भगीरथ को ,
स्वंय के धरती पर आने का आश्वासन दिया। लेकिन गंगा ने भगीरथ को चेताया कि यदि वो सीधे स्वर्ग से पृथ्वी पर प्रवेश करेंगी तो पृथ्वी उनका वेग सहन नहीं कर पाएगी और पृथ्वी पाताल लोक में समाहित हो जाएगी।
यह भगीरथ के लिए एक बहुत बड़ी समस्या थी।
इस समस्या का समाधान केवल भगवान शिव ही कर सकते थे अतः अब भगीरथ ने भगवान भोलेनाथ की आराधना करना प्रारंभ कर दिया। भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने भगीरथ को दर्शन दिए ।
भगीरथ ने उन्हें अपना पूरा वृत्तांत बताया। तब भगवान शिव ने उसकी समस्या को हल करने के लिए एक उपाय निकाला।
उपाय के अनुसार स्वर्ग से गंगा की धार बहुत तेजी से पृथ्वी की ओर आई, गंगा के मार्ग में भगवान शिव आ गए और सारा जल उन्होंने अपने मस्तक पर ले लिया ।
सारा जल उनकी जटाओं में समाहित हो गया, उसकी एक बूंद भी धरती पर नहीं गिरी।
फिर भगवान शिव ने गंगा की धार को सात धाराओं के रूप में पृथ्वी पर प्रवाहित किया और इस प्रकार गंगा का पृथ्वी पर प्रवेश हुआ और भगीरथ के पूर्वज भी श्राप से मुक्त हो गए।
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” नीलकंठ भगवान शिव “
Shankar Bhagwan ki Kahani- बात तब की है, जब समुद्रमंथन होने वाला था।
एक बार देवराज इंद्र अपने हाथी मै बैठकर कहीं जा रहे थे। तभी रास्ते से ऋषि दुर्वासा भी भगवान शिव के दर्शन के लिए जा रहे थे। दोनो आपस में मिले। देवराज इंद्र ने प्रणाम किया।
तब ऋषि दुर्वासा के पास भगवान विष्णु का पारिजात का पुष्प था।
अतः आशीर्वाद स्वरूप ऋषि ने वह पुष्प देवराज इंद्र को दे दिया। देवराज इंद्र घमण्ड में थे। उन्हें पारिजात की विशेषता पता नहीं थी। उन्होंने पुष्प का अपमान कर उसे अपने हाथी के सर पर रख दिया।
पारिजात एक दिव्य पुष्प था। उसके स्पर्श से हाथी भगवान विष्णु के ही समान दिव्य हो गया और इंद्र को छोड़ कर जंगल की ओर चला गया।
पारिजात का अपमान होता देख ऋषि दुर्वासा ने इंद्र को श्राप दे दिया कि, लक्ष्मी अब इंद्रलोक से चली जाएगी। श्राप के कारण माता लक्ष्मी स्वर्ग से उसी समय चली गईं।
स्वर्ग से लक्ष्मी का वास खत्म हो गया और देवताओं का धन वैभव सब समाप्त हो गया। असुरों ने इंद्रलोक पर आक्रमण कर इंद्रलोक पर कब्जा कर लिया।
सभी देवगण सहायता के लिए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें भगवान विष्णु जी के पास जाने को कहा।
सभी देवता फिर भगवान विष्णु जी के पास पहुंचे माता लक्ष्मी भी उनहीँ के साथ विराजमान थी। भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी थे। उन्हें पल भर में ही देवताओं की समस्या पता चल गयी,
तो भगवान विष्णु ने देवताओं को असुरों से संधि कर लेने का प्रस्ताव रखने को कहा, और यह बताया कि समुद्र के तल में बहुत से रत्न है और अमृत भी,
वो तुम सभी लेकर धन और वैभव पुनःप्राप्त कर सकते हो। देवता बात मान गए और देव अब असुरराज बलि के पास पहुंचे। अमृत की बात सुनकर वे भी संधि के लिए राजी हो गए।
समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया। दोनो पक्ष बराबर मेहनत कर मंथन कर रहे थे। तभी मंथन से विष बाहर आया। विष में इतनी तपिश थी,
कि दसो दिशाए जलने लगीं थी। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव वहां आए और उन्होंने विष को हथेलियों में रख पीना शुरू कर दिया। भगवान विष्णु ने विष का प्रभाव भगवान शिव के गले मे ही खत्म कर दिया।
विष के कारण भगवान शिव का गला नीला पड़ गया और भगवान शिव फिर कहलाए नीलकंठ।
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Shankar Bhagwan ki Kahani
” चन्द्र और भगवान शिव “
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रजापति दक्ष की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ चंद्रदेव का विवाह हुआ। उन सभी में से रोहिणी अत्यंत खूबसूरत थी।
अतः चंद्रदेव रोहिणी को बहुत अच्छा मानते थे। यह सब अन्य कन्याओं को पसन्द नहीं था।
उन सभी ने कई बार चन्द्र से इस बारे मे बात भी की लेकिन फिर भी चन्द्रदेव केवल रोहिणी को ही अधिक प्रेम करते थे। यह बात अन्य नक्षत्र कन्याओं को बिल्कुल पसन्द नहीं थी।
अतः इस बात की शिकायत करने वे सभी कन्याएँ अपने पिता दक्ष प्रजापति के पास चलीं गईं। दक्ष बहुत ही गुस्सैल स्वभाव के थे जब दक्ष ने यह बात सुनी तो,
वे चन्द्र के पास क्रोधित होकर गए औऱ उन्होंन चन्द्र को क्षय रोग का श्राप दे दिया फिर वहां से चले गए।
दक्ष के श्राप का प्रभाव चन्द्र पर हुआ और वे धीरे धीरे क्षय रोग से ग्रसित होने लगे औऱ उनकी कला भी खत्म होने लगी। तब नारदजी चंद्रदेव के पास आए और उन्होंने भगवान आसुतोष की आराधना करने को कहा।
चंद्रदेव ने नारद की बात मानकर भगवान आसुतोष की आराधना करना प्रारंभ कर दिया। लेकिन चन्द्र की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही थी।
जब चन्द्र अपने जीवन के अंतिम क्षणों में थे तब भगवान शिव ने प्रदोषकाल में चंद्रदेव को पुनर्जीवन का वरदान दे दिया और चन्द्र को अपने मस्तक पर धारण कर लिया।
तब भी चन्द्र की हालत ठीक नहीं हुई थी इसीलिए जब शिवजी ने उन्हें मस्तक पर धारण किया तो, वे आधे आकार में ही थे। चंद्रदेव मृत्यु के करिब आकर भी जीवित हो गए।
अब धीरे धीरे चन्द्र का स्वास्थ्य ठीक होने लगा और वे पूर्णमासी की रात को अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त हो गए। चन्द्र क्षय रोग की पीड़ा सहकर मृत्यु के द्वार तक पहुंच चुके थे।
भगवान शंकर ने ही उनकी सभी समस्याओं को हर लिया और उन्हें जीवनदान दिया।
” भगवान शंकर और शनिदेव “
Shiv Bhagwan ki Kahani- एक बार शनिदेव भगवान शिव के पास आए । भगवान शिव को शिनदेव कपन गुरु मानते थे।
उन्होंने अपने गुरु के सामने हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।भगवान शिव, शनिदेव के कैलाश आने से प्रसन्न हुए।
लेकिन जब भगवान शिव ने उनके कैलाश आने का कारण पूछा तो शनिदेव बोले,
” प्रभु कल मैं आपकी राशि पर आने वाला हूँ। अर्थात मेरी वक्र दृष्टि आप पर पड़ने वाली है। इसी बात को बताने के लिए आज मैं आपके पास आया हूँ। “
भगवान शिव शनिदेव की बात सुनकर कुछ अचंभित हुए। लेकिन फिर वे शनिदेव से बोले, ” हे शनि आप कितने समय के लिए मेरी राशि मे विद्यमान रहेंगे?”
शनिदेव बोले, ” प्रभु मैं केवल सवा प्रहर के लिए ही आपके ऊपर अपनी वक्र दृष्टि रखूंगा।” इतना कहकर शनिदेव कैलाश से चले गए।
अब भगवान शिव चिंतित हो गए। और वक्र दृष्टि से बचने के उपाय सोचने लगे।
उन्हें कुछ सूझ नहीं रह था । अतः वे अगले दिन मृत्यु लोक आए और उन्होंने सवा प्रहर के लिए पशु रूप धारण किया और हाथी बन गए।
भगवान शिव सवा प्रहर तक हाथी के रूप में ही धरती पर विचरण करते रहे । अब सवा प्रहर खत्म हुआ फिर भगवान शिव कैलाश पहुंचे । उन्होंने देखा कि कैलाश में शनिदेव उनका इंतजार कर रहे थे।
भगवान शिव, शनिदेव के पास गए , शनिदेव ने उन्हें प्रणाम किया। इस पर भगवान शिव मुस्कुराए और बोले, ” शनिदेव आपका और आपकी वक्र दृष्टि का मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं हुआ।”
तब शनिदेव मुस्कुराकर बोले, ” हे भगवन! मेरी दृष्टि से आज तक न तो देव बच पाए हैं और न ही दानव। अतः आप भी मेरी दृष्टि से नहीं बच पाए।”
यह सुनकर भगवान शिव आश्चर्य चकित रह गए। तब शनिदेव बोले, ” प्रभु! आपको मेरी ही वक्र दृष्टि के कारण कैलाश और देव योनि को छोड़कर मृत्युलोक जाना पड़ा,
और सवा प्रहर तक पशु योनि में प्रवेश कर पशु रूप में रहना पड़ा। इस प्रकार मेरी दृष्टि आप पर पड़ गयी और आप इसके पात्र बन गए।
शनिदेव की न्यायप्रियता को देखते हुए भगवान शिव ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया।
Shiv Bhagwan ki Kahani
” भगवान शिव और माता सती “
पौराणिक कथा के अनुसार , दक्ष प्रजापति की सभी पुत्रियां गुणवाण थीं लेकिन फिर भी दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो सर्व शक्ति-संपन्न हो।
इसी बात को विचार करते हुए उन्होंने पुत्री के लिए तप करना शुरू कर दिया। तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो मां भगवती ने स्वंय प्रकट होकर कहा, ‘मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं।
बोलो तुम किस कारण से मेरा ध्यान कर रहे थे!”
दक्ष ने तप करने का कारण बताया और अपनी इच्छा को व्यक्त किया। फिर मां बोली मैं स्वयं पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म धारण करूंगी और मेरा नाम सती होगा।
कुछ समय बाद मां भगवती ने सती रूप में दक्ष के घर में जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में सबसे अलौकिक थी। सती ने बाल्यावस्था में ही कई ऐसे आश्चर्य चकित करने वाले कार्य कर दिखाए थे,
Shankar Bhagwan ki Kahani Moral Part- जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी अचंभा होता था। लेकिन जब सती विवाह योग्य हो गई तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता होने लगी।
उन्होंने ब्रह्मा जी से इस विषय में परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, सती तो माता भगवती की अवतार हैं। मां भगवती स्वंय आदि शक्ति और शिव आदि पुरुष हैं।
अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं।
अपने पिता ब्रह्मा की बात उन्हें पसन्द नहीं आई क्योंकि दक्ष को शिव पसंद नहीं थे। उनका कहना था कि वे हमेशा गले में सांप और शेर की खाल पहने घूमते रहते हैं।
लेकिन सती की जिद के कारण उनको मानना पड़ा। अंत में सती का विवाह भोलेनाथ से संपन्न हुआ। और शिव व सती का मिलन हुआ।
” वीरभद्र रूप का जन्म “
Shankar Bhagwan ki Kahani- दक्ष पुत्री सती का कई कठिन प्रयासों के पश्चात भगवान शिव से विवाह हुआ। ब्रह्मा पुत्र दक्ष इस विवाह से बिल्कुल भी प्रसन्न नहीं था।
बल्कि वह तो शिव से केवल बैरभाव ही रखता था।
सती का शिव से विवाह उन्हें कभी भी पसन्द नहीं आया।
शिव औऱ सती के विवाह के पश्चात ब्रह्मा पुत्र प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। जिसमें उसने सभी देवताओं और ब्रह्म और विष्णु जी को भी आमंत्रित किया।
भगवान शिव से ईर्ष्या और बैर के चलते दक्ष ने शिव जी को आमंत्रण नहीं भेजा। इस बात पर सती को बहुत क्रोध आया। और वह अपने पति के अपमान का उत्तर मांगने अपने पिता के घर गयी।
वहां त्रिदेव के बगैर ही यज्ञ का आयोजन हो चुका था। अपने पति और आराध्य का इस तरह अपमान होते हुए देख माता सती बहुत क्रोधित हुईं औए उन्होंने अपने पिता से इस पर बहुत विवाद किया।
अंत में सती ने अपमान का बोझ लेकर यज्ञवेदी में कूद कर अपनी आहुति दे दी औऱ अपने देह का त्याग कर दिया।
Shiv Bhagwan ki Kahani Moral Part- जब यह बात भगवान शिव को पता लगी तो वे बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने क्रोध में आकर अपने मस्तक से बालों की एक जटा उखाड़ी औऱ उसे रोषपूर्ण भाव से एक पर्वत पर पटक दिया।
उस जटा और भगवान शिव के क्रोध से महाभयंकर और क्रोध से पूर्ण वीरभद्र प्रकट हुए। जो कि भगवान शिव का ही एक रूप थे।
वीरभद्र यज्ञ में गए और पूरे यज्ञ को तहस नहस कर दिया और क्रोध में आकर प्रजापति दक्ष का गला काट दिया।
शिव जी का यह रूप अत्यंत विनाशकारी था जिसने यज्ञ का विध्वंस कर दिया और प्रजापति दक्ष को उसके कर्मों का फल भी दिया।
लेकिन बाद मे देवताओं के अनुरोध पर भगवान शिव ने ही प्रजापति दक्ष को एक बकरे का सर देकर, पुनर्जीवन प्रदान किया।
Krishna Bhagwan ki Kahani
” भगवान विष्णु की आराधना “
भगवान विष्णु के आराध्य हैं भगवान शिव, और भगवान शिव के आराध्य हैं भगवान विष्णु।
एक बार नारायण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्हें एक हजार कमल के पुष्पों को अर्पित करने का संकल्प लिया। संकल्प को सिद्ध करने के लिए वे स्वयं ही एक हजार कमल के पुष्पों को इकट्ठा करने के लिए गए,
और सभी पुष्पों को लेकर एक स्थान पर चले गए।
अब उन्होंने सभी सामग्रियां इकट्ठा की और आराधना शुरू कर दी। इस समय नारायण भक्त की भूमिका में थे और भगवान शिव, भगवान की भूमिका में।
नारायण अपना संकल्प लिए और अपने आराध्य को याद करते हुए कमल के पुष्प उन पर अर्पित करते जा रहे थे। उनकी आंखें बंद थीं और वे अपनी आराधना में पूर्णतया लीन थे।
तब भगवान शिव को ठिठोली सूझी और वे चुपचाप भगवान विष्णु के पास आए और उनके पुष्पों की थाल में से एक कमल का पुष्प चुरा लिया।
इस बात की खबर भगवान विष्णु को कदापि नहीं थी। जब नौ सौ निन्यानबे पुष्प अर्पित हो चुके थे उसके बाद जब भगवान विष्णु ने पुष्प अर्पित करने के लिए अपना हाथ थाली में बढ़ाया तो वहां एक भी पुष्प बाकी न था।
भगवान विष्णु अपनी जगह से हिल नहीं सकते थे और न ही किसी को कहकर पुष्प मंगवा सकते थे क्योंकि, शास्त्र के अनुसार उन्हें इन सभी चीजों का पालन करना था।
Krishna Bhagwan ki Kahani Moral Part- वे चाहते तो अपनी माया से कई सारे पुष्प प्रकट कर उनको समर्पित कर सकते थे। लेकिन इस समय वे भक्त की भूमिका में थे।
तब उनके दिमाग मे आया कि,
उनको सभी कमलनयन कहकर पुकारते थे, अतः उन्होंने भगवान शिव की आराधना में अपनी एक आंख निकाल कर अर्पित कर दिया।
यह देखकर भगवान शिव भावविभोर ही गए और उनकी आंख से अश्रु निकलने लगे। तब भगवान शिव एक चक्र के रूप में परिवर्तित हो गए। यह वही सुदर्शन चक्र था,
जिसे भगवान विष्णु ने अपनी तर्जनी उँगली में धारण किया। इस प्रकार भगवान शिव और भगवान विष्णु सदा के लिए एक दुसरे के पूरक के रुप मे परिणित हुए।
” विष्णु जी का मोहिनी रूप “
Vishnu Bhagwan ki Kahani- समुद्र मंथन के समय जब मंथन द्वारा अमृत निकला तो देवताओं और असुरों के मध्य द्वंद्व छिड़ गया।
इस पर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया और छल द्वरा अमृत देवताओं को पिला दिया।
असुरों को इस बात का भान नहीं था वे तो केवल मोहिनी के रूप पर ही अपना ध्यान केन्दित किये हुए थे। जब असुरों को इस बारे में पता चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया क्योंकि उनकी संधि ही अमृत पान पर हुई थी।
अब असुर देवताओं से युद्ध करने आ गए।
लेकिन भगवान विष्णु देवताओं के साथ थे तो, असुर अब परास्त होने लगे। स्वंय के प्राणों की रक्षा करने के लिए वे सभी पाताल लोक जाकर छिप गए। लेकिन उनके पीछे पीछे,
भगवान विष्णु भी पाताल लोक आ गये। वहां भगवान शिव की भक्त अप्सराएँ असुरों की कैद में थी। भगवान विष्णु ने उन्हें असुरों की कैद से मुक्त करा।
अप्सराओं को विष्णु जी का रूप बहुत पसंद आया और उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे उन्हें विष्णु जी को पति के रूप में दें। भगवान शिव ने अपनी भक्तों को निराश नहीं किया।
Krishna Bhagwan ki Kahani Moral Part- विष्णु जी कई दिनों तक पाताल लोक में ही रुके। अप्सराओं ने विष्णु जी के पुत्रों को जन्म दिया।
लेकिन वे सभी दैत्य प्रकृति और अवगुणों वाले थे।
जब भगवान शिव को इस बारे में पता चला तो उन्होंने वृषभ का अवतार लेकर पाताल लोक जाकर उन सभी का संहार कर दिया।
जब भगवान विष्णु को यह ज्ञात हुआ कि उनके सभी पूतों का संहार भगवान शिव ने कर दिया है तो वे भगवान शिव के पास लड़ने को पहुंच गए। दोनो देवता थे अतः उनकी लड़ाई का अंत हो ही नहीं रहा था।
फिर जब भगवान विष्णु का अंतर्द्वंद्व भंग हुआ तो उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने भगवान शिव से क्षमा मांगी। और पुनः अपने विष्णु लोक चले गए।
Vishnu Bhagwan ki Kahani
” विष्णु जी का वामन अवतार “
Krishna Bhagwan ki kahani- धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, असुरराज राजा बलि ने अपनी ताकत और क्षमता के बल पर तीनों लोकों में आधिपत्य स्थापित कर लिया।
बलि प्रह्लाद के पौत्र थे। और प्रह्लाद भगवान विष्णु के परम भक्त थे।
बलि असुरों में सबसे दयालु और दानप्रिय राजा थे।
जब इंद्र और अन्य देवगण अपने इंद्रलोक को बलि से वापस न ले सके तो वे भगवान विष्णु के पास अपनी समस्या को लेकर पहुंचे और भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिलाया कि वे उन्हें इंद्रलोक वापस दिलवाएंगे।
जब बलि ने एक यज्ञ का आयोजन कराया तो वहां उन्होंने कई ब्राह्मणों को भी बुलवाया उनहीँ में से एक ब्राह्मण याचक भगवान विष्णु भी थे जो कि वामन का अवतार लेकर बलि के पास याचक के रूप में पहुंचे थे।
उनके एक हाथ में छाता और एक हाथ मे एक छड़ी थी।
बलि वामन देव के पास आए और उनसे अपनी इच्छानुसार कुछ मांगने को कहा। वामन ने उनसे अपने लिए केवल तीन पग भूमि की मांग की।
बलि के गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें चेताया कि वे इनकी बातों पर न आए, लेकिन बलि अपने वचन के पक्के थे उन्होंने वामन को वचन दिया कि वे उन्हें तीन पग भूमि देंगे।
Vishnu Bhagwan ki Kahani Moral Part- वामन रूपी भगवान विष्णु ने फिर अपना आकार बहुत बड़ा कर लिया।
और अपने एक पग से पूरा भूलोक नाप लिया। अपने दूसरे पग से उन्होंने पूरा देवलोक नाप लिया। अब तीसरे पग के लिए उनके पास कोई भूमि नहीं बची थी तो वामन ने बलि से कहा कि वे अपना तीसरा पग कहाँ रखे?
बलि तो अपने वचन के पक्के थे, तो बलि ने कहा कि आप अपना तीसरा पग मेरे सर पर रखिये।
इस पर वामन बहुत खुश हुए। और बलि को महाबली की उपाधि भी दी। वामन ने खुश होकर बलि को पाताल लोक दे दिया और बलि फिर पाताल लोक जाकर रहने लगें।
” पृथ्वी की परिक्रमा “
God Stories in Hindi- एक बार देवता किसी विकट समस्या से जूझ रहे थे। वे अपनी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए भगवान शिव के पास पहुंच गए।
कैलाश में भगवान शिव ,माता पार्वती और अपने दोनों पुत्रों, गणेश और कार्तिकेय के साथ विराजमान थे।
देवराज इंद्र ने अपनी सारी समस्याओं को भगवान शिव के सामने रख दिया।
भगवान शिव ने कुछ सोचकर कहा, कि उनकी समस्या का समाधान गणेश या कार्तिकेय में से कोई कर सकता है। उन्होंने एक पुत्र का नाम न लेकर दोनों का ही नाम ले लिया।
लेकिन अब एक और समस्या खड़ी हो गयी कि समस्या का हल करेगा कौन।
तब भगवान शिव ने दोनों पुत्रों के सम्मुख एक प्रतियोगिता रख दी। उस प्रतियोगिता के अनुसार , गणेश या कार्तिकेय में से जो भी उस प्रतियोगिता को उचित ढंग से और कम समय मे पूर्ण करेगा वही देवताओं की सहायता करने योग्य होगा।
प्रतियोगिता यह थी कि, उन दोनों को पृथ्वी की परिक्रमा करनी थी।
कार्तिकेय की सवारी थी मोर, वह अपने वाहन में बैठकर चल दिये पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए। लेकिन जब गणेश ने अपने वाहन मूषकराज को देखा तो उन्हें एहसास हुआ कि ऐसे तो मैं परिक्रमा कभी भी पूर्ण नहीं कर पाऊंगा।
God Stories in Hindi Moral Part- गणेश जी बहुत ही विद्वान थे, अतः उन्हें याद आया कि, मेरे तो माता-पिता में ही पूरा संसार समाहित है।
उन्होंने अब निर्णय लिया कि वह अपने माता पिता की ही परिक्रमा करेंगे।
वे अपने माता-पिता के पास गए और उनकी सात बार परिक्रमा कर ली। अब कार्तिकेय भी पृथ्वी की परिक्रमा कर कैलाश लौट आए।
भगवान शिव ने तब गणेश से पूछा, तुम परिक्रमा के लिए क्यो नही गए?
तब गणेश जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं ने संसार की परिक्रमा कर ली है क्योंकि मेरे माता पिता ही मेरा संसार है।”
सभी गणेश जी की बातों से बहुत सन्तुष्ट हुए और उनकी बुद्धि मत्ता की तारीफ भी करी। भगवान शिव ने उन्हें फिर देवताओं की सहायता के लिए भेज दिया।
Ganesh Bhagwan ki Kahani
” गणेश का जन्म “
Bhakt aur Bhagwan ki Kahani- एक बार माता पार्वती स्नान करने के लिए जा रही थी, तो उन्होंने देखा कि उनके रक्षक के रूप मे कोई भी नहीं खड़ा है।
माता पर्वती ने फिर अपने शरीर पर लगें चन्दन के लेप से एक बच्चे के आकार की मूर्ति बनाई और उस मूर्ति से ही गणेश जी प्रकट हुए। चूंकि माता पार्वती ने उन्हें बनाया था अतः वे माता पार्वती के पुत्र थे।
और भगवान शिव उनके पिता थे। माता पार्वती ने अपने पुत्र गणेश को आदेश दिया कि जब तक वे स्नान न कर लें तब तक किसी को भी अंदर आने की अनुमति न दे।
गणेश मान गए और बाहर पहरेदार के रूप में खड़े हो गए।
तब भगवान शिव वहां आए। लेकिन गणेश ने उन्हें अंदर जाने नहीं दिया। भगवान शिव को इस पर बहुत क्रोध आया। फिर उन्होंने नंदी को बालक को समझाने के लिए भेजा। लेकिन गणेश नहीं माना।
गणेश के इस व्यवहार पर नंदी को भी बहुत क्रोध आया और वह बालक के साथ द्वंद्व करने लगा। लेकिन बालक गणेश बहुत शक्तिशाली था अतः उसने नंदी को परास्त कर दिया।
जब भगवान शिव को यह बात पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुए और क्रोध में आकर बालक गणेश का सर अपने त्रिशूल से काट दिया।
Ganesh Bhagwan ki Kahani Moral Part- जब माता पार्वती ने यह देखा तो वे बहुत दुखी हुई और रोने लगीं। तब जाकर उन्हें पता लगा कि गणेश उनका ही पुत्र था।
उन्हें बहुत दुख हुआ। माता पार्वती ने कहा कि मुझे अपना पुत्र किसी भी हाल में चाहिए।
तब भगवान शिव ने नंदी को आदेश दिया कि जो भी प्राणी अपनी मां की तरफ पीठ कर के सोया हो उसका सर ले आओ। मैं फिर बालक गणेश को जीवनदान दे सकता हूँ।
नंदी को पृथ्वी पर जंगल मे केवल एक ही ऐसा प्राणी मिला जो कि अपनी मां के पीठ की ओर सोया हुआ था वह था हाथी का बच्चा। नंदी उसका ही सर काटकर कैलाश ले गया,
और भगवान शिव के सामने रख दिया। भगवान शिव ने उस सर को गणेश के धड़ से जोड़ दिया और गणेश को पुनर्जीवित किया।
गणेश जी का यह स्वरूप गणपति कहलाया और सभी देवी देवताओं ने उन्हें आशीर्वाद और अपनी अपनी शक्तियों को भी प्रदान किया।
” गणेश जी और मूषकराज “
Bhakt aur Bhagwan ki Kahani- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, बहुत समय पहले एक असुरों का राजा था उसका नाम था गजमुख। गजमुख का आतंक बहुत ही बढ़ गया था। वह तीनों लोकों में अपना आधिपत्य जमाना चाहता था,
और देवी देवताओं को अपने वश मे करना चाहता था। वह यह चाहता था कि, उसकी पूजा पूरे विश्व वाले करें।
इस वरदान को प्राप्त करने के लिए उसने कई वर्षों तक कड़े प्रयास किये और भगवान शिव की कई वर्षों तक तपस्या की। भगवान उसकी भक्ति और तपस्या से बहुत प्रसन्न हुए और उसको वरदान दिया कि उसकी मृत्यु किसी भी अस्त्र शस्त्र से नहीं होगी।
इस वरदान को पाकर वह और शक्तिशाली और अमर हो गया।
अब उसने सभी देवी देवताओं को परेशान करना प्रारंभ कर दिया। और तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य भी जमा लिया। लेकिन वह यह चाहता था कि सभी लोग उसे देवताओं की जगह पूजें।
लेकिन उसके अत्याचारों की वजह से कोई भी उसको अच्छा नहीं मानता था।
लेकिन उसका प्रभाव ,ब्रह्मा, विष्णु और महेश और गणेश जी पर नहीं होता था।
God Stories in Hindi Moral Part- देवताओं ने अब निर्णय लिया कि वे पानी समस्या को सुलझाने के लिए त्रिदेवों के पास जाएंगे।
भगवान शिव ने देवताओं की बात सुनी और गजमुख को सबक सीखाने के लिए गणेश को उसके पास भेजा।
गणेश जी ने उसके साथ द्वंद्व किया और वह बुरी तरह से घायल हो गया। लेकिन वह भगवान शिव के वरदान के फलस्वरूप अभी तक जीवित बच गया था।
अब उसने अपने प्राणों को बचाने के लिए एक मूषक का रूप धारण किया। मूषक रूप में वह इधर उधर दौड़ जाता था। लेकिन गणेश ने उसे पकड़ लिया और उसके ऊपर सवार होकर उसकी सवारी करने लगे।
उन्होंने गजमुख को हमेशा के लिए मूषक बना दिया। तभी से गणेश जी की सवारी मूषकराज हो गए।
God Stories in Hindi
” गणेश जी और कुबेर “
Ganesh Bhagwan ki Kahani- एक बार कुबेर को अपनी धन सम्पत्ति पर बहुत ही घमण्ड हो गया। कुबेर ने सोचा कि क्यों न मैं अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए भगवान शिव को अपने घर भोज पर बुलाऊँ।
वह कैलाश पर्वत पहुंच गया और भगवान शिव को अपने घर भोजन पर आने के लिए आमंत्रित किया। भगवान शिव कुबेर की मनोदशा अच्छी तरह से समझ चुके थे,
और माता पार्वती को भी उनकी मन की बातों का भान हो गया था। तब भगवान शिव ने कुबेर से कहा, ” मैं कैलाश छोड़कर कहीं नही जाता हूँ।”
तब कुबेर ने माता पार्वती से उसके घर चलने का आग्रह किया। माता पार्वती ने कहा कि, मैं अपने स्वामी के बिन कहीं नहीं जाती अतः मैं भी कैलाश छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊँगी।
तब कुबेर उदास होकर बोले,” तो क्या मैं खाली हाथ ही लौट जाऊं?”
तब माता पार्वती ने कहा, ” आप हमारे पुत्र गणेश को ले जाइए। वैसे भी उसकव खाना पीना और मोदक बहुत ही पसन्द है। वह आपको निराश नहीं करेगा। किंतु आपको उसका आदर अच्छी तरह से करना होगा ।
कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।”
तब कुबेर ने मन मे सोचा, एक छोटा सा बालक मेरे खाने का क्या मुकाबला करेगा। यह तो 4-5 मोदकों में ही सन्तुष्ट हो जाएगा।
माता पार्वती मुस्कुराई और उन्होंने गणेश को अपने पास बुलवाया। गणेश भी अब सारी बातें समझ गया। वह कुबेर के साथ चलने को राजी हो गया।
कुबेर गणेश को अपने साथ अपने महल ले गए। और उसका भली प्रकार से आदर सत्कार भी किया। कुबेर ने गणेश के सामने बहुत से खाने के व्यंजन रख दिये। गणेश कुछ ही क्षणों में वह सब खा गया।
Ganesh Bhagwan ki Kahani Moral Part- इसके बाद और खाना मंगवाया गया। गणेश ने वह भी खा लिया। धीरे धीरे कर के कुबेर के घर का सारा खाना और अन्न समाप्त हो गया।
लेकिन गणेश का पेट नहीं भरा।
तब गणेश ने कुबेर के घर के बर्तनों, आभूषणों को भी खाना शुरू कर दिया। अब कुबेर को अपनी गलती का एहसास हुआ। लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब वह करे तो करे क्या।
वह जल्द से भगवान शिव के पास पहुंच गए। भगवान शिव से कुबेर ने माफी मांगी। तब माता पार्वती ने उन्हें एक कटोरी खीर दी और उसे गणेश को खिला देने को कहा।
कुबेर ने वह खीर गणेश को खिलाई तब जाकर उनकी भूख शांत हुई और फिर वह खुशी खुशी अपने घर को चले गए।
” चंद्रमा और गणेश “
God Stories in Hindi- एक बार गणेश जी अपने वाहन पर बैठ कर कहीं जा रहे थे। उस दिन उनका पेट कुछ ज्यादा ही भरा हुआ था। उनके पास कुछ मोदक भी थे।
तभी उनका मूषक एक बड़े पत्थर से टकरा गया और सभी नीचे गिर गए।
गणेश के मोदक भी नीचे गिर गए। तब आकाश से चन्द्रमा उनके मार्ग में आ पहुंचे। और जोर जोर से हंसने लगे। चंद्रमा ने मूषक और गणेश जी की बहुत खिल्ली उड़ाई और उनके मोटे होने पर भी उन्हें बहुत तंज कसे।
चन्द्रमा ने गणेश जी की मजाक बनाते हुए कहा कि, इतना क्या खाते हो जो खुद को सम्भाल भी नहीं पा रहे हो। हा हा हा….।
चन्द्रमा की बात सुनकर गणेश जी को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने सोचा कि घमंड में चूर होकर चन्द्रमा मुझे उठाने के लिए किसी प्रकार की सहायता नहीं कर रहा है और ऊपर से मेरा मजाक उड़ा रहा है।
इसलिए, गणेश ने चन्द्रमा को श्राप दिया कि जो भी गणेश चतुर्थी के दिन तुमको देखेगा वह लोगाें के सामने चोर कहलाएगा। और आज से तुम अपनी सारी चमक खो दोगे।
Bhakt aur Bhagwan ki Kahani Moral Part- श्राप की बात सुनकर चन्द्रमा घबरा गए और सोचने लगे कि फिर तो मुझे कोई भी नहीं देखेगा। और सारा संसार रात्रि में अंधकार में रहेगा।
उन्होंने शीघ्र ही गणेश जी से माफी मांगी।
और उनकी शरण मे चले गए। कुछ देर बाद जब गणेश जी का गुस्सा शांत हुआ, तब उन्होंने कहा कि मैं श्राप तो वापस नहीं ले सकता, लेकिन तुमको एक वरदान देता हूं,
कि अगर वहीं व्यक्ति अगली गणेश चतुर्थी को तुमको देखेगा, तो उसके ऊपर से चाेर होने का श्राप उतर जाएगा। और तुम्हारी चमक पूर्णिमा को पूर्ण होगी तथा धीरे धीरे कम अथवा अधिक होगी।
तब जाकर चन्द्रमा की जान में जान आई। और वह गणेश जी का धन्यवाद कर वापस चले गए।
भगवान की कहानियाँ
” एकदंत गणेश “
Ganesh Bhagwan ki Kahani- धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, एक बार परशुराम आप के आराध्य भगवान भोलेनाथ से मिलने के लिए कैलाश पर्वत आए।
भगवान शिव उस समय अपनी आराधना में थे और ध्यान कर रहे थे।
बाहर गणेश जी खड़े हुए थे। परशुराम जी के मार्ग में बालक गणेश थे। जब परशुराम अंदर की ओर जाने लगे तो बालक गणेश ने उन्हें अंदर जाने से रोकते हुए कहा कि आप कृपया रुक जाइये।
अंदर मेरे पिता ध्यान में हैं। और उन्होंने किसी को भी अंदर आने से रोका है। तब परशुराम ने बालक गणेश की बात नहीं सुनी और अंदर जाने का प्रयास करने लगे।
बाल गणेश के बार बार मना करने के बाद भी वे नहीं माने। परशुराम जी को भी बहुत क्रोध आ गया था। उन्होंने अब बालक गणेश के साथ द्वंद्व करना शुरू कर दिया।
बालक गणेश परशुरामजी के हर प्रहार का प्रतिउत्तर बहुत ही सावधानी और निपुणता के साथ दे रहे थे। इस प्रकार परशुरामजी का हर प्रहार विफल हो जा रहा था।
तब परशुराम जी ने अपना शस्त्र परशु चलाने का निर्णय लिया। यह शस्त्र भगवान शिव ने परशुराम को वरदान स्वरूप दिया था। बालक गणेश अपने पिता के शस्त्र पहचान लिया।
Ganesh Bhagwan ki Kahani Moral Part- उसका आदर करते हुए बालक गणेश उसका उत्तर देने से पीछे हट गए। परशु के प्रहार से बालक गणेश का एक दांत टूट गया।
बालक गणेश को बहुत पीड़ा हो रही थी। वह बहुत जोर जोर से चिल्ला रहे थे।
उनका करुण रुन्दन सुनकर माता पार्वती वहां आई। उनको परशुराम पर बहुत क्रोध आया और वे अचानक पार्वती से मां दुर्गा में परिणित हो गयी।
माता का रौद्र रूप देख कर परशुराम को एहसास हुआ कि उनसे बहुत बड़ी गलती हो गयी है। अतः उन्होंने माता से क्षमा याचना की। और गणेश को आशीर्वाद के रूप मे कुछ शक्तियां और ज्ञान दिया।
तभी से गणेश जी का नाम उनका एक दांत टूटने पर एकदन्त पड़ गया।
” कावेरी नदी का निर्माण “
Ganesh Bhagwan ki Kahani- गर्मी के भीषण दिन दे दक्षिण में सूखा पड़ गया था। ऋषि अगस्त्य को लोगों की हालत देखी नहीं जा रही थी।
तभी उन्होंने सोचा कि यदि दक्षिण में भी एक नदी होगी तो पानी और सूखे की समस्या को हल किया जा सकता है।
ऋषि अगस्त्य दक्षिण में रह रहे लोगों के हित के लिए एक नदी का निर्माण चाहते थे। वे उम्मीदों के साथ भगवान शिव के पास गए। उन्होंने अपनी समस्या उन्हें बताई और उनसे प्रार्थना की कि,
वे उनकी उनका लक्ष्य सफल करने में सहायता करें। भगवान शिव को उनके विचार ठीक लगे तो उन्होंने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार की और उन्हें एक छोटे पात्र में पानी दिया और कहा कि आप जहाँ भी इस पानी को डालेंगे वहीं से नदी का निर्माण हो जाएगा।
जब ऋषि और भगवान शिव आपस में वार्तालाप कर रहे थे तो, गणेश जी ने उनकी यह बात सुन ली और वे भी इस कार्य में ऋषि अगस्त्य की सहायता करना चाहते थे। वे भी ऋषि अगस्त्य के पीछे पीछे चल पड़े।
ऋषि अगस्त्य ने निर्णय किया कि वे इस नदी का निर्माण कूर्ग के पर्वतों के ऊपर करेंगे और वहीं से इसका बहाव होगा। सफर के दौरान ऋषि अगस्तय थक गए,
और वे आराम करने के लिए कोई जगह ढूंढ़ने लगे। तभी रास्ते में उन्हें एक छोटा बच्चा मिला जो अकेला खड़ा हुआ था।
Bhakt aur Bhagwan ki Kahani Moral Part- ऋषि ने उस बच्चे से निवेदन किया कि वह उस पात्र को थोड़ी देर के लिए पकड़ ले ताकि ऋषि आराम कर सकें।
वह बच्चा खुद श्री गणेश जी ही थे और उस पानी का रहस्य जानते थे
और साथ श्री गणेश यह भी जानते थे कि वे जहाँ खड़े हैं वह स्थान भी उस नदी के प्रवाह के लिए उचित है इसलिए उन्होंने वह पात्र वहीं जमीन में रख दिया। और वहां से चले गए।
जब ऋषि अगस्त्य वापस आए तो उन्होंने देखा कि वह पात्र जमीन पर रखा है और एक कौवा उसमें पानी पी रहा है। ऋषि ने उस कौवे को उड़ाने का प्रयास किया, वह कौवा उड़ता ,
इससे पहले ही उसने वह पानी जमीन में गिरा दिया और वहाँ से एक नदी प्रवाहित होने लगी जिसका नाम कावेरी पड़ा। और गणेश जी ने कावेरी नदी के प्रवाह के लिए ऋषि अगस्त्य की सहायता की।
” माता पार्वती और बाल गणेश “
Ganesh Bhagwan ki Kahani- गणेश जी बचपन मे एक शरारती और नटखट बालक थे और वे ज्यादातर अपनी नटखट शरारतों में ही व्यस्त रहते थे।
लेकिन उन्होंने बचपन से ही अपनी के विशेष प्रतिभाओ को भी दिखाया।
एक बार गणेश जी, अपने मूषक के साथ खेलते–खेलते एक बिल्ली के पास जा पहुँचे। बिल्ली भी उनके साथ खेलना चाहती थी। गणेश जी को भी वह पसन्द आयी।
वह उसके पास गए और उससे शरारत करने लगे। उन्होंने उस बिल्ली को उठाया और उसे जमीन में फेंक दिया, गणेश कभी उसकी पूंछ खींचते तो कभी उसके बाल खींच लेते और ऐसे में वह बिल्ली दर्द से चिल्लाने लगी।
किन्तु गणेश ने उसकी आवाज को अनसुना कर दिया और वे उसके साथ तब तक खेलते रहे जब तक थक नहीं गए । अब वह तक चुके थे तो फिर वह घर वापस आ गए।
जब गणेश जी कैलाश पहुँचे तो उन्होंने देखा कि माता पार्वती जमीन में मूर्छित पड़ी है। और उनके शरीर में अनेक घाव भी लगे हैं। गणेश जल्दी से माँ के पास पहुँचे और पूछने लगे कि किस ने उनकी ऐसी दशा की!
Ganesh Bhagwan ki Kahani Moral Part- तो माँ पार्वती ने जवाब दिया कि गणेश तुमने ही यह सब किया है। वास्तव में माँ पार्वती ने उस बिल्ली का रूप धारण किया था,
और वे अपने पुत्र गणेश के साथ खेलना चाहती थी।
किंतु बिल्ली के साथ गणेश का व्यवहार ही उनकी मूर्च्छा का कारण था और जिस कारण उन्होंने अपनी माँ को ही हानि पहुँचाई थी।
गणेश को अपने इस व्यवहार पर बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अपनी माँ से क्षमा मांगी । साथ ही किसी भी जानवर के साथ स्नेह–पूर्ण व्यवहार करने का संकल्प भी लिया।
फिर उनकी मां ने उन्हें गले से लगा लिया। सुर मोदक खाने के लिए भी दिये।
Conclusion | भगवान की कहानियाँ
आज आपने पढ़ी Bhagwan ki Kahani. जिन्हें पढ़कर आपको विश्व विधाता की भक्ति में शक्ति जानने को मिली होगी। अगर आपको यह God Stories in Hindi पोस्ट पसन्द आयी, तो बताएं कमैंट्स में और बने रहें sarkaariexam के साथ।